नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में ‘जय श्री राम’ नारों के संदर्भ में मस्जिद में नारेबाजी के मामले की सुनवाई के दौरान कानूनी वैधता और संवैधानिक मूल्यों पर सवाल उठाए। कोर्ट ने कहा कि धार्मिक नारों को किसी विशेष स्थान पर उकसावे या सांप्रदायिक तनाव फैलाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए।
मामले की पृष्ठभूमि:
यह मामला उस घटना से जुड़ा है जिसमें कुछ लोगों द्वारा मस्जिद के पास ‘जय श्री राम’ के नारे लगाए गए थे। याचिकाकर्ता ने इसे धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन और सांप्रदायिक सद्भाव भंग करने वाला कृत्य बताया।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी:
सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा:
“धार्मिक नारे और प्रतीकों का उपयोग सभी के अधिकारों और स्वतंत्रता के दायरे में होना चाहिए। किसी विशेष धार्मिक स्थान पर उकसावे की भावना से नारों का प्रयोग करना संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ है।”
- धार्मिक स्वतंत्रता:
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि भारत का संविधान धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है, लेकिन किसी भी कार्य से सांप्रदायिक सद्भाव को नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए। - उकसावे की मंशा:
कोर्ट ने मामले की गंभीरता पर विचार करते हुए कहा कि यदि यह घटना जानबूझकर उकसाने की मंशा से की गई है, तो यह कानून के उल्लंघन की श्रेणी में आ सकती है। - कानूनी दृष्टिकोण:
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकार से पूछा कि क्या ऐसे मामलों में कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए मौजूदा कानूनी ढांचे में पर्याप्त प्रावधान हैं।
याचिकाकर्ता का पक्ष:
याचिकाकर्ता ने दलील दी कि मस्जिद में या उसके आसपास धार्मिक नारेबाजी करना विध्वंसक मानसिकता को दर्शाता है और इसका उद्देश्य समाज में सांप्रदायिक तनाव पैदा करना था।
सरकार का रुख:
सरकार ने कहा कि ऐसे मामलों में स्थानीय प्रशासन और पुलिस को स्थिति को नियंत्रित करने के निर्देश दिए गए हैं। सरकार ने यह भी कहा कि किसी भी प्रकार की धार्मिक असहिष्णुता को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
संवैधानिक संदर्भ:
- अनुच्छेद 25:
यह प्रत्येक व्यक्ति को अपनी धार्मिक स्वतंत्रता को मानने, प्रचार करने और उसका पालन करने का अधिकार देता है, लेकिन यह अधिकार सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन है। - धारा 153A:
भारतीय दंड संहिता की यह धारा सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने या समाज में शांति भंग करने वाले कृत्यों को दंडनीय अपराध बनाती है। - सांप्रदायिक सौहार्द:
कोर्ट ने कहा कि धार्मिक सौहार्द और शांति संविधान की मूल आत्मा है, जिसे सभी नागरिकों को बनाए रखना चाहिए।
विशेषज्ञों की राय:
कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप महत्वपूर्ण है क्योंकि यह धार्मिक स्वतंत्रता और कानून व्यवस्था के बीच संतुलन स्थापित करने में मदद करेगा।
निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट का यह रुख स्पष्ट करता है कि धार्मिक नारों का उपयोग किसी भी तरह के उकसावे या सांप्रदायिक तनाव के लिए नहीं किया जाना चाहिए। यह मामला संवैधानिक मूल्यों, धार्मिक सौहार्द और कानून व्यवस्था के बीच संतुलन पर एक महत्वपूर्ण चर्चा का अवसर प्रदान करता है।