चेन्नई3 घंटे पहले
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स्टालिन ने आरोप लगाया कि भाजपा सरकार ने राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट से संदर्भ लेने की सलाह दी थी। यह एक चाल थी।
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने रविवार को पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, तेलंगाना, केरल, झारखंड, पंजाब और जम्मू-कश्मीर (सभी गैर-भाजपा शासित राज्य) के 8 राज्यों के मुख्यमंत्रियों को चिट्ठी लिखी। इसमें उन्होंने राष्ट्रपति के सुप्रीम कोर्ट से मांगे गए संदर्भ का विरोध करने की अपील की है।
स्टालिन ने लिखा- ‘हम सभी जानते हैं कि जब किसी मुद्दे पर कोर्ट के आधिकारिक फैसले से पहले ही निर्णय लिया जा चुका हो, तब सुप्रीम कोर्ट के सलाह देने के क्षेत्राधिकार का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। फिर भी भाजपा सरकार ने राष्ट्रपति पर संदर्भ मांगने के लिए जोर दिया है, जो उनके भयानक इरादे बताता है।
इसके बावजूद भाजपा सरकार ने संदर्भ मांगने पर जोर दिया है, जो उनके भयावह इरादे की ओर इशारा करता है। मैं गैर-भाजपा शासित सभी राज्यों से अपील करता हूं कि राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट में भेजे गए संदर्भ का विरोध करें।’
स्टालिन ने ये भी कहा,

हमें कोर्ट में कानूनी रणनीति पेश करनी चाहिए। साथ ही संविधान के मूल ढांचे की रक्षा करने के लिए एक मोर्चा (फ्रंट) बनाना चाहिए, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक निर्णय में बरकरार रखा है। मैं इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर आपके व्यक्तिगत हस्तक्षेप की आशा करता हूं।
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से सवाल पूछे थे
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट के प्रेसिडेंट और गवर्नर के लिए डेडलाइन तय करने पर सवाल उठाए थे। उन्होंने केंद्र सरकार की सलाह पर 13 मई 2025 को संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल पूछे थे।
एक वीडियो में राष्ट्रपति ने कहा था कि संविधान में इस तरह की कोई व्यवस्था ही नहीं है, तो सुप्रीम कोर्ट कैसे राष्ट्रपति-राज्यपाल के लिए बिलों पर मंजूरी की समयसीमा तय करने का फैसला दे सकता है।
ये मामला तमिलनाडु गवर्नर और राज्य सरकार के बीच हुए विवाद से उठा था। जहां गवर्नर से राज्य सरकार के बिल रोककर रखे थे। सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को अपने आदेश में कहा था कि राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है।

CM स्टालिन की चिट्ठी में और क्या है…
- राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने केंद्र सरकार की सलाह पर 13 मई को संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से 14 सवाल पूछे थे। हालांकि संदर्भ में किसी राज्य या फैसले का जिक्र नहीं है, लेकिन इसका मकसद तमिलनाडु v/s तमिलनाडु के राज्यपाल मामले में सुप्रीम कोर्ट की कानून और संविधान की व्याख्या पर सवाल उठाना है।
- वह ऐतिहासिक फैसला न केवल तमिलनाडु के बल्कि हर राज्य के लिए है। क्योंकि यह संघ और राज्यों के बीच पावर डिस्ट्रीब्यूशन को बरकरार रखता है। और सरकार की तरफ से नियुक्त अनिर्वाचित व्यक्ति यानी राज्यपाल को राज्य विधानसभाओं के बनाए कानूनों में बाधा डालने से रोकता है।
- केंद्र सरकार ने राज्यपालों का इस्तेमाल विपक्षी शासन वाले राज्यों के कामकाज में बाधा डालने के लिए किया है। वे विधेयकों पर मंजूरी देने में देरी करते हैं। वैध संवैधानिक या कानूनी कारणों के बिना मंजूरी नहीं देते। साइन करने के लिए भेजी गई रेग्युलर फाइलों और सरकारी आदेशों पर कब्जा करते हैं। महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियों में हस्तक्षेप करते हैं और शैक्षणिक संस्थानों का राजनीतिकरण करने के लिए यूनिवर्सिटी के चांसलर के रूप में अपने पद का दुरुपयोग करते हैं।
- वे ऐसा करने में सक्षम हैं क्योंकि संविधान कुछ मुद्दों पर चुप है। संविधान के निर्माताओं को विश्वास था कि उच्च संवैधानिक पद पर बैठे लोग संवैधानिक नैतिकता के मुताबिक काम करेंगे। इसी संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के राज्यपाल के मामले में ऐतिहासिक फैसला दिया था।
- अब यह फैसला तय करेगा कि केंद्र सरकार संविधान के तहत हमें दिए गए क्षेत्रों के भीतर हमारी भूमिका और जिम्मेदारियों को निभाने वाली राज्य सरकारों में गैरजरूरी और गलत ढंग से दखल ने दे।
गवर्नर की ओर से राष्ट्रपति को भेजे गए बिल पर सुप्रीम कोर्ट के 4 पॉइंट्स
1. बिल पर फैसला लेना होगा: सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अनुच्छेद 201 कहता है कि जब विधानसभा किसी बिल को पास कर दे। उसे राज्यपाल के पास भेजा जाए और राज्यपाल उसे राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेज दे। इस स्थिति में राष्ट्रपति को बिल पर मंजूरी देनी होगी या फिर बताना होगा कि मंजूरी नहीं दे रहे हैं।
2. ज्यूडिशियल रीव्यू होगा: सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आर्टिकल 201 के तहत राष्ट्रपति का निर्णय की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। अगर बिल में केंद्र सरकार के निर्णय को प्राथमिकता दी गई हो, तो कोर्ट मनमानी या दुर्भावना के आधार पर बिल की समीक्षा करेगा।
अदालत ने कहा कि बिल में राज्य की कैबिनेट को प्राथमिकता दी गई हो और राज्यपाल ने विधेयक को मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह के विपरीत जाकर फैसला किया हो तो कोर्ट के पास बिल की कानूनी रूप से जांच करने का अधिकार होगा।
3. राज्य सरकार को राज्यपाल को कारण बताने होंगे: सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जब कोई समय-सीमा तय हो, तो वाजिब टाइम लाइन के भीतर फैसला करना चाहिए। राष्ट्रपति को बिल मिलने के 3 महीने के भीतर फैसला लेना अनिवार्य होगा। यदि देरी होती है, तो देरी के कारण बताने होंगे।
4. बिल बार-बार वापस नहीं भेज सकते: अदालत ने कहा कि राष्ट्रपति किसी बिल को राज्य विधानसभा को संशोधन या पुनर्विचार के लिए वापस भेजते हैं। विधानसभा उसे फिर से पास करती है, तो राष्ट्रपति को उस बिल पर फाइनल डिसीजन लेना होगा और बार-बार बिल को लौटाने की प्रक्रिया रोकनी होगी।
विवाद पर अब तक क्या हुआ…
17 अप्रैल: धनखड़ बोले- अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ 17 अप्रैल को राज्यसभा इंटर्न के एक ग्रुप को संबोधित कर रहे थे। इस दौरान उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की उस सलाह पर आपत्ति जताई, जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपालों को बिलों को मंजूरी देने की समय सीमा तय की थी।
धनखड़ ने कहा था- “अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं। संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत कोर्ट को मिला विशेष अधिकार लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ 24×7 उपलब्ध न्यूक्लियर मिसाइल बन गया है। जज सुपर पार्लियामेंट की तरह काम कर रहे हैं।” पूरी खबर पढ़ें…
18 अप्रैल: सिब्बल बोले- भारत में राष्ट्रपति नाममात्र का मुखिया

राज्यसभा सांसद कपिल सिब्बल ने कि जब कार्यपालिका काम नहीं करेगी तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना ही पड़ेगा। भारत में राष्ट्रपति नाममात्र का मुखिया है। राष्ट्रपति-राज्यपाल को सरकारों की सलाह पर काम करना होता है। मैं उपराष्ट्रपति की बात सुनकर हैरान हूं, दुखी भी हूं। उन्हें किसी पार्टी की तरफदारी करने वाली बात नहीं करनी चाहिए।’
सिब्बल ने 24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का जिक्र करते हुए कहा- ‘लोगों को याद होगा जब इंदिरा गांधी के चुनाव को लेकर फैसला आया था, तब केवल एक जज, जस्टिस कृष्ण अय्यर ने फैसला सुनाया था। उस वक्त इंदिरा को सांसदी गंवानी पड़ी थी। तब धनखड़ जी को यह मंजूर था। लेकिन अब सरकार के खिलाफ दो जजों की बेंच के फैसले पर सवाल उठाए जा रहे हैं।’ पूरी खबर पढ़ें…
8 अप्रैल: विवाद सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से शुरू हुआ

सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को तमिलनाडु गवर्नर और राज्य सरकार के केस में गवर्नर के अधिकार की सीमा तय कर दी थी। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने कहा था, ‘राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है।’ सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के 10 जरूरी बिलों को राज्यपाल की ओर से रोके जाने को अवैध भी बताया था।
इसी फैसले के दौरान अदालत ने राज्यपालों की ओर से राष्ट्रपति को भेजे गए बिल पर भी स्थिति स्पष्ट की थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल की तरफ से भेजे गए बिल पर राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा। यह ऑर्डर 11 अप्रैल को सार्वजनिक किया गया। पूरी खबर पढ़ें…
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राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से सवाल क्यों पूछे, ये खबर भी पढ़ें
क्या राष्ट्रपति को आदेश दे सकती है कोर्ट: द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से ही पूछे 14 सवाल; असली खेल क्या है

सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के आर्टिकल 142 का इस्तेमाल करते हुए राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए विधेयक पारित करने की समयसीमा तय की थी। अब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के आर्टिकल 143 का इस्तेमाल करके सुप्रीम कोर्ट से ही 14 सवाल पूछ लिए हैं? क्या है पूरा मामला और इसके पीछे का खेल; भास्कर एक्सप्लेनर में इससे जुड़े 8 जरूरी सवालों के जवाब जानेंगे…