Sunday, June 1, 2025
Homeभारतगवर्नर-प्रेसिडेंट के लिए डेडलाइन पर कानूनी बहस: पूर्व कानून मंत्री बोले-...

गवर्नर-प्रेसिडेंट के लिए डेडलाइन पर कानूनी बहस: पूर्व कानून मंत्री बोले- सरकार और अदालतों में टकराव होगा, वकील बोले- मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही चलेगा राष्ट्रपति


  • Hindi News
  • National
  • Droupadi Murmu; President Governor Bills Deadline Controversy | Supreme Court

नई दिल्ली8 मिनट पहले

  • कॉपी लिंक

लीगल एक्सपर्ट्स का कहना है कि सुप्रीम का मकसद बिलों को मंजूरी में होने वाली देरी रोकना था। कुछ ने कहा- संविधान में समय-सीमा तय करने का जिक्र नहीं है।

प्रेसिडेंट और गवर्नर के लिए डेडलाइन बनाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर कानून बहस शुरू हो गई है। पूर्व कानून मंत्री अश्विनी कुमार ने कहा- इससे सरकार और अदालतों के बीच टकराव की स्थिति पैदा हो सकती है, जिसे सुलझाना जरूरी है। उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट की बेंच इस पर स्पष्ट राय देगी।

संवैधानिक मामलों के एक्सपर्ट्स एडवोकेट सुमित गहलोत ने कहा- गृह मंत्रालय ने 2016 में राज्यपाल को तीन महीने में बिल पर फैसला देने का निर्देश दिया था। इसी आधार पर 8 अप्रैल को समय-सीमा तय की। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला कोई नई बात नहीं है।

गहलोत ने यह भी कहा- आर्टिकल 74 में कहा गया है कि राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही चलना होता है, इसलिए उनकी स्वतंत्र भूमिका सीमित है। आर्टिकल 143 के तहत राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट से किसी अहम कानूनी या तथ्यात्मक मसले पर राय ले सकते हैं।

8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट का फैसला, जिसके बाद विवाद शुरू हुआ

सुप्रीम कोर्ट का 8 अप्रैल का फैसला।

सुप्रीम कोर्ट का 8 अप्रैल का फैसला।

राष्ट्रपति-राज्यपाल समय-सीमा विवाद पर एक्सपर्ट्स की राय

  • सीनियर एडवोकेट सिद्धार्थ लूथरा- यह मामला सिर्फ समय-सीमा का नहीं है, बल्कि संघीय ढांचे (फेडरलिज्म) और नागरिकों के अधिकारों से जुड़ा है। सवाल यह है कि क्या कोई राज्यपाल या राष्ट्रपति बिल को अनिश्चितकाल तक रोक सकता है। ऐसा करके सरकार के कामों में बाधा डाल सकते हैं। जनता को उसके विधायी अधिकार (लेजिस्लेटिव राइट्स) से वंचित कर सकते हैं।
  • एडवोकेट आशीष दीक्षित- राष्ट्रपति कानूनी या सार्वजनिक मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट से राय मांग सकते हैं। कोर्ट चाहे तो सुनवाई कर सकता है या विनम्रता से इनकार भी कर सकता है। यह राय बाध्यकारी नहीं होती, लेकिन संवैधानिक मार्गदर्शन का काम करती है।
  • सीनियर एडवोकेट आदिश अग्रवाल: आर्टिकल 142 का उपयोग समय-सीमा तय करना खतरनाक हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट 1996 में भी कह चुका है कि असंवैधानिक विलंबों को रोकने के लिए समय-सीमा जरूरी है, लेकिन अदालत को संतुलन बनाए रखना चाहिए।

गवर्नर की ओर से राष्ट्रपति को भेजे गए बिल पर सुप्रीम कोर्ट के 4 पॉइंट्स

1. बिल पर फैसला लेना होगा: सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अनुच्छेद 201 कहता है कि जब विधानसभा किसी बिल को पास कर दे। उसे राज्यपाल के पास भेजा जाए और राज्यपाल उसे राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेज दे। इस स्थिति में राष्ट्रपति को बिल पर मंजूरी देनी होगी या फिर बताना होगा कि मंजूरी नहीं दे रहे हैं।

2. ज्यूडिशियल रिव्यू होगा: सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आर्टिकल 201 के तहत राष्ट्रपति का निर्णय की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। अगर बिल में केंद्र सरकार के निर्णय को प्राथमिकता दी गई हो, तो कोर्ट मनमानी या दुर्भावना के आधार पर बिल की समीक्षा करेगा।

अदालत ने कहा कि बिल में राज्य की कैबिनेट को प्राथमिकता दी गई हो और राज्यपाल ने विधेयक को मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह के विपरीत जाकर फैसला किया हो तो कोर्ट के पास बिल की कानूनी रूप से जांच करने का अधिकार होगा।

3. राज्य सरकार को राज्यपाल को कारण बताने होंगे: सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जब कोई समय-सीमा तय हो, तो वाजिब टाइम लाइन के भीतर फैसला करना चाहिए। राष्ट्रपति को बिल मिलने के 3 महीने के भीतर फैसला लेना अनिवार्य होगा। यदि देरी होती है, तो देरी के कारण बताने होंगे।

4. बिल बार-बार वापस नहीं भेज सकते: अदालत ने कहा कि राष्ट्रपति किसी बिल को राज्य विधानसभा को संशोधन या पुनर्विचार के लिए वापस भेजते हैं। विधानसभा उसे फिर से पास करती है, तो राष्ट्रपति को उस बिल पर फाइनल डिसीजन लेना होगा और बार-बार बिल को लौटाने की प्रक्रिया रोकनी होगी।

विवाद पर अब तक क्या हुआ…

17 अप्रैल: धनखड़ बोले- अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ 17 अप्रैल को राज्यसभा इंटर्न के एक ग्रुप को संबोधित कर रहे थे। इस दौरान उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की उस सलाह पर आपत्ति जताई, जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपालों को बिलों को मंजूरी देने की समय सीमा तय की थी।

धनखड़ ने कहा था- “अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं। संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत कोर्ट को मिला विशेष अधिकार लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ 24×7 उपलब्ध न्यूक्लियर मिसाइल बन गया है। जज सुपर पार्लियामेंट की तरह काम कर रहे हैं।” पूरी खबर पढ़ें…

18 अप्रैल: सिब्बल बोले- भारत में राष्ट्रपति नाममात्र का मुखिया

राज्यसभा सांसद कपिल सिब्बल ने कि जब कार्यपालिका काम नहीं करेगी तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना ही पड़ेगा। भारत में राष्ट्रपति नाममात्र का मुखिया है। राष्ट्रपति-राज्यपाल को सरकारों की सलाह पर काम करना होता है। मैं उपराष्ट्रपति की बात सुनकर हैरान हूं, दुखी भी हूं। उन्हें किसी पार्टी की तरफदारी करने वाली बात नहीं करनी चाहिए।’

सिब्बल ने 24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का जिक्र करते हुए कहा- ‘लोगों को याद होगा जब इंदिरा गांधी के चुनाव को लेकर फैसला आया था, तब केवल एक जज, जस्टिस कृष्ण अय्यर ने फैसला सुनाया था। उस वक्त इंदिरा को सांसदी गंवानी पड़ी थी। तब धनखड़ जी को यह मंजूर था। लेकिन अब सरकार के खिलाफ दो जजों की बेंच के फैसले पर सवाल उठाए जा रहे हैं।’ पूरी खबर पढ़ें…

8 अप्रैल: विवाद सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से शुरू हुआ

सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को तमिलनाडु गवर्नर और राज्य सरकार के केस में गवर्नर के अधिकार की सीमा तय कर दी थी। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने कहा था, ‘राज्यपाल के पास कोई वीटो पावर नहीं है।’ सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के 10 जरूरी बिलों को राज्यपाल की ओर से रोके जाने को अवैध भी बताया था।

इसी फैसले के दौरान अदालत ने राज्यपालों की ओर से राष्ट्रपति को भेजे गए बिल पर भी स्थिति स्पष्ट की थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल की तरफ से भेजे गए बिल पर राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा। यह ऑर्डर 11 अप्रैल को सार्वजनिक किया गया। पूरी खबर पढ़ें…

खबरें और भी हैं…



Source link

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

spot_img
spot_img
spot_img
spot_img
spot_img

Most Popular

Recent Comments